जानिए धार्मिक कार्यों में दक्षिणा देने का महत्व ; कब , किसे और कितनी दक्षिणा देनी चाहिए
भारतीय संस्कृति में दक्षिणा एक देवी का नाम है , जो यज्ञ की पत्नी कहलाती है । पत्नी एक अर्धांगिनी का रूप होती हैं और अर्धांगिनी को निराश करना मतलब की किसी भी धार्मिक कार्य का सफलतापूर्वक संपन्न ना होना ।
परिश्रम से प्राप्त धन ही
दान योग्य होता हैं ;
और ऐसा ही दान का
फल मिलता है ।।
क्या अर्थ होता है दक्षिणा का ?
भारत संस्कृति में जिस भेंट , यज्ञ , धन अथवा धार्मिक कृत्यों से गुरू को सम्मान स्वरूप किया जाता है । असल में उसे दक्षिणा का एक बोधक माना जाता है ।
दक्षिणा शब्द में कई हिंदी शब्दों का भाव समाहित होते है , जैसे कि : - भेट , उपहार , शुल्क , पारिश्रमिक और इत्यादि ।
भारतीय संस्कृति में सालों से एक रिवाज़ चला आ रहा है किसी भी पूजा , अनुष्ठान , व धार्मिक कार्यों के समय में व्यक्ति का दान दक्षिणा का देना । जो कि हमारे भारतीय संस्कृति में एक अहम स्थान को दर्शाता है ।
अगर सरल शब्दों में कहा जाए , तो किसी के सम्मान धनराशि को पेश करना ही दक्षिणा कहां जाता है ।
हमारी भारतीय संस्कृति में दक्षिणा हमेशा से ही पारिश्रमिक के मुकाबले अधिक दी जाती है और इन दोनों के बीच यही मूल अंतर होता है
दक्षिणा के बिना अधूरा रहता है यज्ञ का फल ;
व्यक्ति अगर किसी भी यज्ञ के फल की प्राप्ति करना चाहता है । तो उसे धार्मिक कार्यों के समय दान दक्षिणा देनी होती है और बिना दान दक्षिणा के कोई भी यज्ञ का फल निष्फल रहता है ।
दरअसल हमारी भारतीय संस्कृति में दक्षिणा एक देवी का नाम है , जो यज्ञ की पत्नी कहलाती है । क्योंकि पत्नी एक अर्धांगिनी होती है । ऐसे में अगर अर्धांगिनी को ही निराश किया जाए तो कोई भी धार्मिक कार्यों सफल नहीं होता । दक्षिणा के बिना कोई भी यज्ञ पूरा नहीं होता ।
गीता में इस बात का भी जिक्र किया गया है , कोई भी यज्ञ अगर शास्त्रों के निर्देश अनुसार संपन्न किया जाता है तो ही उस यज्ञ का फल व्यक्ति को सात्विक रूप में मिलता है । वहीं दूसरी ओर अगर यज्ञ शास्त्रों के निर्देश अनुसार संपन्न नहीं किया जाता है । तो वह तामसिक यज्ञ कहलाता है । जिसका फल निष्फल कहलाता है ।
वही तामसिक यज्ञ को जो करता है व संपन्न करवा रहा होता है । वो उस धार्मिक कार्य का प्रसिद्ध नहीं पाता है व सुख और परम की गति का लाभ भी नहीं उठा सकता है ।
सरल शब्दों में अगर आपको बताएं तो उसके द्वारा किया गया यह निष्फल हो जाता है ।
धार्मिक कार्यों में व्यक्ति को कितनी दक्षिणा देनी चाहिए ;
हमारे शास्त्रों के अनुसार यह माना जाता है , की यदि कोई व्यक्ति धनवान है तो उसे सामान्य दक्षिणा से दुगनी दक्षिणा अपने मन से खुशी - खुशी किसी भी धार्मिक कार्य में दे देनी चाहिए ।
वहीं दूसरी ओर अगर कोई व्यक्ति बहुत ही ज्यादा धनवान है , यानी कि रईस है तो उसे सामान्य दक्षिणा से 3 गुना ज्यादा दक्षिणा धार्मिक कार्यों में दे देनी चाहिए ।
यदि कोई व्यक्ति निर्धन है तो उसे सामान्य दक्षिणा से आधी दक्षिणा दान देनी चाहिए । और यदि कोई व्यक्ति अत्यंत ही निर्धन है , तो उसे सामान्य दक्षिणा से भी दक्षिणा का एक चौथाई भाग दान देना चाहिए ।
व्यक्ति कब दे सकता है दक्षिणा ;
किसी भी पूजा , हवन व यज्ञ आदि के समाप्त होने के तुरंत बाद ही व्यक्ति को दान दक्षिणा दे देनी चाहिए । व्यक्ति को दान दक्षिणा देने में कभी भी देरी नहीं करनी चाहिए ।
शास्त्रों की मान्यता ये बोलती है , की पूजा के बाद ज्यादा से ज्यादा एक घटी यानी कि 24 मिनट के अंदर ही व्यक्ति को अपनी दान दक्षिणा दे देनी चाहिए ।
अगर व्यक्ति ऐसा करने में असफल रहता है तो समय के अनुसार उसकी दक्षिणा बढ़ती चली जाती है । जिससे दक्षिणा ना देने पर ब्रह्म हत्या का पाप भी लग सकता है ।
व्यक्ति ऐसा करने से हमेशा बचे व पूजा समाप्त होने के तुरंत बाद ही दान दक्षिणा को देदे.